नई दिल्ली: वो सन् 2008 के दिसम्बर माह की एक सर्द रात थी। दिल्ली के श्री राम सेंटर में एक आयोजन में मंगलेश डबराल से छोटी-सी मुलाकात हुई थी। उसी महफिल में नामवर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, रेखा व्यास और कई अन्य नामचीन साहित्यकार शामिल थे। तब, मैं गुरुकुल कांगड़ी में शोधार्थी था और इस महफिल में डॉ अजय नावरिया के साथ शामिल हुआ था। मैंने और डॉ अजय नावरिया ने शायद 2006 में जामिया मिलिया इस्लामिया (Jamia Millia Islamia) में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद के लिए एक साथ इन्टरव्यू दिया था। और भी बहुत सारे कैंडीडेट थे, लेकिन चयन डॉ अजय नावरिया का हुआ था। डॉ नावरिया और मेरे जुड़ाव का मुख्य कारण कमलेश्वर जी थे। क्योंकि, हम दोनों का पीएचडी कमलेश्वर पर ही था। खैर, वो अलग बात है। उस रात मैंने महसूस किया था कि मंगलेश डबराल की विनम्रता में पहाड़-सी ऊँचाई और आँखों में समंदर-सी गहराई थी। वो जन संवेदना, सामाजिकता की खोज और जन पीड़ा के कवि थे। मंगलेश जी की कविताओं में सामंती बोध एव पूँजीवादी छल-छद्म दोनों का प्रतिकार है। वे यह प्रतिकार किसी शोर-शराबे के साथ नहीं, बल्कि प्रतिपक्ष में एक सुंदर सपना रचकर करते हैं। वे लोगों को सोशल मीडिया के खतरों से भी सचेत करते हैं। उनका सौंदर्यबोध सूक्ष्म है और भाषा पारदर्शी। वास्तव में वे एक उम्दा रचनाकार थे। वे नाजुक संदेह और चिंतित करने वाले कवि थे। दिसम्बर 09, 2020 को उनका निधन हो गया।
मंगलेश डबराल का जन्म मई 16,1948 को टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड के कापफलपानी गाँव में हुआ और शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई। दिल्ली आकर हिंदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद में भोपाल में भारत भवन से प्रकाशित होने वाले पूर्वग्रह में सहायक संपादक हुए। इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी की। सन् 1983 में जनसत्ता अखबार में साहित्य संपादक का पद संभाला। कुछ समय सहारा समय में संपादन कार्य करने के बाद वे नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़ गए।
मंगलेश डबराल के सात काव्य संग्रह हैं – पहाड़ पर लालटेन (1981), घर का रास्ता (1988), हम जो देखते हैं (1995), आवाज भी एक जगह है (2000), नए युग में शत्रु (2013), स्मृति एक दूसरा समय है (2020) और समय नहीं है (2020, अप्रकाशित)। गद्य संग्रह में लेखक की रोटी और कवि का अकेलापन प्रमुख हैं, उनके दो यात्रा वृतांत हैं एक सड़क एक जगह और एक बार आयोवा हैं ।
उनके काव्य संग्रह 'हम जो देखते हैं' को 2000 ई में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस काव्य संग्रह में संकलित कुल 57 कविताओं में प्रमुख हैं; घर शांत है, कुछ देर के लिए, अभिनय, दिल्ली में एक दिन, बाहर, बारिश, पिता की तस्वीर, दादा की तस्वीर, माँ की तस्वीर, अपनी तस्वीर, कागज़ की कविता, हाशिए की कविता, आइने, दिल्ली-एक, दिल्ली-दो, परिभाषा की कविता, रात, चेहरा, उम्मीद, शेष जीवन है। उनके पहले काव्य संकलन 'पहाड़ पर लालटेन' में वसंत, आवाजें, किसी दिन, परछाई, अत्याचारियों की थकान, मकान, शहर-एक, शहर-दो, शब्द, गिरना आदि हैं। इस संकलन में कुल 40 कविताएँ शामिल हैं।
मंगलेश डबराल 1970 के दशक में एक कवि के रूप में उभरे। उनकी रचनाओं में आपातकाल द्वारा चिह्नित युग, नक्सलवाद की समस्या और छात्र जीवन की अशांति को स्पष्ट देखा जा सकता है। वे पूंजीवाद के अंतर्निहित आशंकाओं, मुक्त बाजार के भ्रम और खतरों से आगाह करते हुए देखे जा सकते हैं। डबराल जी ने सन् 2002 के गुजरात दंगों के संदर्भ में कुछ बेहतरीन हिंदी कविताएँ लिखी थीं। उनकी कविता की भाषा राजनीति से भिन्न है। वह गुमराह नहीं करती है; बल्कि एक सही राह की ओर उंगली पकड़कर चलती है। उनके लिए कविता लोगों का उत्सव है; राजनीति अथवा किसी नेता की शरणस्थली नहीं। डबराल जी की कविता, राजनीति की भव्य क्रांतियों के बारे में नहीं है, बल्कि आम महिला और पुरुष के मौन दुखों को कहती है। मंगलेश डबराल की कविता 'गुजरात के मृतक का बयान' का एक अंश देखें जो वास्तव में पीड़ा से भरा हुआ है; पहले भी शायद मैं थोड़ा-थोड़ा मरता था / बचपन से ही धीरे-धीरे जीता और मरता था / जीवित बचे रहने की अन्तहीन खोज ही था जीवन / जब मुझे जलाकर पूरा मार दिया गया / तब तक मुझे आग के ऐसे / इस्तेमाल के बारे में पता भी नहीं था / मैं तो रँगता था कपड़े ताने-बाने रेशे-रेशे / चौराहों पर सजे आदमक़द से भी ऊँचे फ़िल्मी क़द / मरम्मत करता था टूटी-फूटी चीज़ों की / गढ़ता था लकड़ी के रँगीन हिण्डोले और गरबा के डाण्डिये / अल्युमिनियम के तारों से छोटी-छोटी साइकिलें बनाता बच्चों के लिए / इस के बदले मुझे मिल जाती थी एक जोड़ी चप्पल, एक तहमद / दिन भर उसे पहनता, रात को ओढ़ लेता / आधा अपनी औरत को देता हुआ । उक्त पंक्तियां स्वयं में पूरी की पूरी कहानी बयाँ करती नजर आती हैं।
मंगलेश डबराल जी की क्षणिकाओं से पता चलता है कि उनके लिए कविता क्या है ? उनके लिए कविता दिन भर थकान जैसी थी / और रात में नींद की तरह / सुबह पूछती हुई / क्या तुमने खाना खाया रात को । वे जानते हैं कि पहाड़ का जीवन कोई सामान्य जीवन नहीं है। तभी वे कहते हैं कि पहाड़ पर चढ़ते हुए तुम्हारी साँस फूल जाती है . आवाज भर्राने लगती है . तुम्हारा कद भी घिसने लगता है . यह सब वही बता सकता है जिसने पहाड़ के साथ जीवन को जिया हो.
उनकी पंक्तियाँ बहुत महत्वपूर्ण संदेश पाठकों के जहन में छोड़ जाती हैं कि; मैं देखता हूँ तुम्हारे भीतर पानी सूख रहा है / तुम्हारे भीतर हवा खत्म हो रही है / और तुम्हारे समय पर कोई और कब्ज़ा कर रहा है . समय पर कब्ज़ा करता हुआ कोई और नहीं डिजिटल हो रही दुनिया के बीच से सोशल मीडिया ने एक घुसपैठिये की तरह कब हमारे समय को चुरा लिया हमें पता ही नहीं चला और आदमी, आदमी से दूर होता चला जा रहा है।
वे अपनी 'त्वचा' नाम की कविता से समाज में व्याप्त खतरों की ओर इशारा करते दिखाई देते हैं उनके इशारों को समझने के लिए आदमी में आध्यात्मिकता के कुछ अंश का होना एक अनिवार्य शर्त है; त्वचा ही इन दिनों दिखती है चारों ओर / त्वचामय बदन त्वचामय सामान / त्वचा का बना कुल जहान // टीवी रात-दिन दिखलाता है जिसके चलते-फिरते दृश्य / त्वचा पर न्योछावर सब कुछ / कई तरह के लेप उबटन झाग तौलिए आसमान से गिरते हुए // कमनीय त्वचा का आदान-प्रदान करते दिखते हैं स्त्री-पुरुष / प्रेम की एक परत का नाम है प्रेम / अध्यात्म की खाल जैसा अध्यात्म // सतह ही सतह फैली है हर जगह उस पर नए-नए चमत्कार / एक सुंदर सतह के नीचे आसानी से छुप जाता है एक कुरूप विचार / एक दिव्य त्वचा पहनकर प्रकट होता है मुकुटधारी भगवान।
वे अपनी 'छुओ, नामक कविता में लिखते हैं कि इस तरह मत छुओ जैसे / जैसे भगवान, महंत, मठाधीश, भक्त, चेले /एक दूसरे के सर और पैर छूते हैं // बल्कि ऐसे छुओ / जैसे लम्बी घासें चांद तारों को छूने-छूने को होती हैं / अपने भीतर जाओ और एक नमी को छुओ। /देखो वह बची हुई है या नहीं / इस निर्मम समय में । वे वक्त की नब्ज को पकड़ कर चलते हैं और भरभराकर चूर-चूर होते समाज में नमी की खोज करते हैं, ताकि ये समाज रूपी घरौंदा गिर ना जाये। एक साहित्यकार का जो दयित्व्य है, वे उसे बखूबी निभाते हैं।
वे वर्तमान कविता के परिदृश्य में एक आत्मीय उजास की तरह मौजूद रहेंगे। उनकी लालटेन ने पहाड़ से उतरकर हिंदी-नीड़ के साथ-साथ वैश्विक भाषाओं तक पहुँच बनाई है। उनकी कविताओं में प्रेम है, पेड़ हैं, नदी है, पहाड़ है यानी सब कुछ समाहित हैं ; प्रेम होगा तो हम कहेंगे कुछ मत कहो / प्रेम होगा तो हम कुछ नहीं कहेंगे / प्रेम होगा तो चुप होंगे शब्द / प्रेम होगा तो हम शब्दों को छोड़ आएँगे / रास्ते में पेड़ के नीचे / नदी में बहा देंगे / पहाड़ पर रख आएँगे।
डबराल जी वर्णों को वे एक नए स्वरूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं; एक भाषा में अ लिखना चाहता हूँ / अ से अनार अ से अमरूद / लेकिन लिखने लगता हूँ अ से अनर्थ अ से अत्याचार / कोशिश करता हूँ कि क से क़लम या करुणा लिखूँ / लेकिन मैं लिखने लगता हूँ क से क्रूरता क से कुटिलता / अभी तक ख से खरगोश लिखता आया हूँ / लेकिन ख से अब किसी ख़तरे की आहट आने लगी है / मैं सोचता था फ से फूल ही लिखा जाता होगा / बहुत सारे फूल / घरों के बाहर घरों के भीतर मनुष्यों के भीतर / लेकिन मैंने देखा तमाम फूल जा रहे थे / ज़ालिमों के गले में माला बन कर डाले जाने के लिए । वे चंहुँ ओर व्याप्त अनर्थ, अत्याचार, क्रूरता, कुटिलता और खतरों को भाप लेते हैं और इशारे करते चलते हैं कि फूल पहने हुए जालिमों से सावधान रहें.
मंगलेश जी की कविताओं के भारतीय भाषाओं के अलावा कई विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। कविता के अतिरिक्त वे साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति के सवालों पर नियमित अपनी कलम चलाते रहे। हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में उनकी घनीभूत रचनात्मक उपस्थिति सदैव रहेगी। उनकी कविताएँ उत्साहित और सक्रिय करती हैं, वे अपनी पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि थे. उन्हें कोटि-कोटि नमन और विनम्र श्रद्धांजलि.
डॉ मनोज कुमार फिलहाल वेस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड के आधिकारिक भाषा एवं जनसंपर्क विभाग में सहायक प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं
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